कैसे बयां करूँ



सुबह की इस आगाज को मै कैसे बयां करूँ,


रात के उस अंदाज को मै कैसे बयां करूँ,,


डराती है अन्धेरें में खड़ी एक परछाई मुझे,


उस परछाई के राज को मै कैसे बयां करूँ,,


आज जिस कदर अकेले में जिए जा रहा हुं मै,


तन्हाई की इस आवाज को मै कैसे बयां करूँ,,


देखता हूँ अपने चारों ओर मचलती खुशियों को,


अपने दुखों की ये दास्तान मै कैसे बयां करूँ,,


सोचता हुं की शायद मिल जायेंगे वो आज,


जुदाई की इस गाज को मै कैसे बयां करूँ,,


सुबह के इस आगाज को मै कैसे बयां करूँ,

रात के उस अंदाज को मै कैसे बयां करूँ,,

Labels: