आज मैंने देखा उसे,
जो चीख चीख कर पुकार रही थी !
बह रहे थे अश्रु उसकी आँखों से,
वो निहार रही थी !
आँखे फेरे मैं भी,
बढ़ चला था औरों कि तरह, पर
वो निरीह सी, मृतप्राय,
रुन्धें स्वर से कराह रही थी !
याद आया कि जाना है
मंजिल कि ओर मुझे, फिर भी
जा न पाया एक कदम, और
ठिठक सा गया, सोचता रहा !!!!
जिसने मुझे बचपन का एहसास दिया,
जिसकी गोद में मैं खेला ,
जिसने खुद को भुला दिया मुझे तराशने में
क्या यही है उसकी परिणति ????
सहसा , मैं सिहर उठा , काँप सा गया
लगा , मानो मेरी आत्मा मुझे दुत्कार रही है
क्या आज मैं इतना डूब चूका था,
आत्मसंतुष्टिकरण में! कि,
न देख पाया अपनी संसृति को ,
अपने अस्तित्व के सूत्रधार को !
मैं तो ठहर गया समर्पित होने को
पर .....क्या मैं, "हम" नहीं हो सकता ?
वो कोई और तो नहीं.....
हमारी धरती , हमारी माँ है ,
ठहरो!!! भर दो उसके सूनेपन को, जिसने हमें रचा है
पोछ लो!!! उसके एक एक आंसुओं को,
जीवित कर दो!!! उसे
क्यूंकि, वो है तो सब है, वो नहीं, तो सिर्फ सूनापन...........
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