विमर्श...

 समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल ब्याध !
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध !!

          अपने प्रिय कवि रामधारी सिंह "दिनकर"  की इन्हीं पंक्तियों से प्रेरणा लेते हुए मैंने तटस्थता का चोला अब उतर फेंका है,  और अपनी किसी सक्रिय भूमिका की तलाश में रत हूँ ! सच है आज हममें  संवेदन शीलता की खाशी कमी होती जा रही है, और हम अपने निहित निजी स्वार्थों से परे कुछ भी देखने या सुनने की स्थिति में नहीं हैं !

          पर आखिर कब तक हम  यूँ  ही अपने आप को छलावा देते रहेंगे, और गांधीजी के बंदरों की श्रेणी में रहकर गौरवान्वित  महसूस करेंगे ?  बुरा करना निश्चित ही ग़लत है, किन्तु बुरा देखने और सुनने से खुद को रोकना ...एक प्रकार से बुरा होने देना ही है, जो अपने आप में एक अपराध है ! हाल  ही में मैंने गाँधी जी के बंदरों की द्विताय  एवं तृतीय श्रेणी से बाहर  निकलकर  कुछ नौनिहालों के नादान बचपन को बालश्रम रूपी दैत्य से मुक्त कराया ,, सच मानो बहुत सुकून मिला !

        स्वयं की प्रेरणा  से ही कुछ कह सकने का साहस जुटा पाया हूँ ! निश्चित ही संवेदना में  स्वयं वेदना का मर्म नहीं हो सकता, लेकिन इसका अर्थ  यह कदापि नहीं है की हम निरंतर संवेदन हीनता की ओर उन्मुख होते रहें ! और स्वयं के कष्ट में न होने को संपूर्ण समाज के कष्टविहीन होने का पैमाना मान लें !क्या यह गर्दभ स्वभाव हम मनुष्यों के लिए  उचित है ?...शायद नहीं !जब हम अन्याय के शिकार होतें हैं तो हर वो शख्श जो उस समय उस अन्याय को अपनी तटस्थ स्वीकृति देता है, हमें  अन्यायी ही लगता है ! तो फिर यही पैमाना उस वक़्त भी लागू होता है जब हम स्वयं भी रोजाना ऐसा ही करते हैं !

            आज हम सभी कहते हैं की हमारा देश महान है, और हमें ऐसा कहना भी चाहिए किन्तु ज़रा सोचिये इतनी गरीबी ,असमानता, भुखमरी, अशिक्षा, घरेलु हिंसा,भाषावाद, प्रांतवाद के नाम पर हिंसा आदि के होते देश की महानता का दंभ भरना अशोभनीय नहीं लगता ? मुझे तो बस नागार्जुन की कही बात याद आ गयी ......
           
जहाँ न भरता पेट ,
 देश वो जैसा भी हो...महानरक है !!! " 

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