अस्तित्व ....

काँटों से भरी राहों पर ,
जीवन जीने की चाह,
उस पर दुखों की चादर ,
अजनबीपन के सन्नाटे से निकली आह !!

क्या है अस्तित्व मेरा ?
मैं के मायने ढूढता हुआ ,
अकेला, असहाय, अनवरत ,
गिर गिर के उठा, चलता रहा !!

चेतन व अवचेतन मन के द्वंद्व में ,
विश्व-चेतस बनने की नाकाम कोशिश करता हुआ ,
आत्मरत,  "पर" का "स्व" में लोप करता ,
अल्पविकसित स्वार्थ, उसी को साधता हुआ !!

क्या यही है मेरा विकास  ??????

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