कहूं कैसे........(भाग एक)



ग़मों की स्याह चादर में,  बदन लिपटा ही रहता है।
ख़ुशी की पाक़ चाहत में,  मन चिपटा ही रहता है।।
कहूं कैसे ये खुल के मैँ,  कि फ़ितरत क्या है इन्सां की।
ज़माने की जकड़ में ये,  सदा सिमटा ही रहता है।।

न तेरी है न मेरी है, कहानी सब की बस ये है।
कभी अपने, कभी सबके, सुखों की कशमकश ये है।।
कहूं कैसे हसीं जीवन, उन्हीं के साथ है मेरा।
सभी का साथ मिल जाए, तमन्ना जस की तस ये है।।

अपने जब से यूँ बिछड़े हैं, कि तिल-तिल रोज मरता हूँ।
व्यथित हूँ इस कदर, ख़ुद को ही अपनाने से डरता हूँ।।
कहूं कैसे द्रवित है दिल , दमित है मन क्यूँ ये मेरा।
सभी से ख़ुद को क्यूँ माँगा , शिक़ायत ख़ुद से करता हूँ।।

                                           ……… जारी ....... 

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